अभिनंदन की पाकिस्तान से रिहाई की तुलना राकेश्वर सिंह की माओवादियों से रिहाई की तुलना कर खुश होना सवस्थ मानसिकता नही है अपितु चिंतनीय है। जवानों को खतरा घर के भीतर वालो से ज्यादा रहता है न कि पड़ोसी मुल्कों से कितनी बड़ी विडंबना है कि जवान अपने ही मुल्क में सुरक्षित नही है।माओवादी कहां रहते है ? क्या करते है ? उनके कमांडर कौन कौन है ? इनके विषय मे पुख्ता जानकारी होने के बावजूद इनपर आक्रमण न करना महज राजनीति करना ही है। सरकार जिसकी भी होती है। उसका झुकाव माओवादीयो की तरफ रहता है। यह जनचर्चा सत्य साबित हो जाती है। झीरम नरसंहार पर बाते करना भी कांग्रेस सरकार मुनासिब नही समझती जबकि उस हमले में कांग्रेस के कद्दावर नेताओ को नक्सलियों ने गोलियों से भून डाला था। अगर सोचा जाये तो एक प्रकार से उस समय कांग्रेस नेता विहीन हो गई थी। छत्तीसगढ़ के प्रथम पंक्ति के कद्दावर नेता विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल,उदय मुदलियार,दिनेश पटेल सहित 32 लोग इस हमले का शिकार हुए थे। कांग्रेस सरकार आने के बाद लोगो की उम्मीद बढ़ी थी कि अब कांग्रेस सरकार इस नरसंहार का बदला चुकायेगी परंतु सत्ता मिलते ही छोटे माओवादीयो पर कार्रवाई कर कांग्रेस ने अपनी पीठ थपथपा ली थी। बतलाया जाता है कि उक्त नरसंहार का मास्टरमाइंड गुरिल्ला युद्ध मे पारंगत फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला 45 लाख रुपये का इनामी नक्सली कमांडर हिड़मा ही था। जो अपने क्षेत्र में आराम से घूमता फिरता रहता है।
जरूरत है ज्ञान के चक्षु खोलने की — घर के लोग ही लोग ले गये थे जवान को बंधक बनाकर और घर के ही लोग जंगल गए थे मदयस्थता करने और उनके कहने पर माओवादियों ने जनचौपाल लगाकर राकेश्वर सिंह को बन्धन मुक्त कर उनके साथ जाने दिया। जो सरकार एवं पुलिस,बटालियन के लिए शर्मनाक है। जिनके कंधों पर देश की सुरक्षा का भार होता है। वह भरी जनचौपाल में मजबूर,बेबस होकर बन्धन खुलवाता है। इस बात से यह तो साबित हो गई कि मीडिया के लोग ही अपराधियो और राजनीतिज्ञ,पुलिस के लिए सेतू का काम करते है। ये माओवादियों की बाते सरकार तक और सरकार की बाते माओवादियों तक पहुंचाते है तो क्या इनका सहारा लेकर माओवादियों के ठिकाने घेरकर नक्सल खात्मा अभियान नही चलाया जा सकता। बड़े इत्मीनान से मोटरसाइकिल पर जब मीडिया वाले उनके ठिकानों पर आना जाना कर सकते है तो क्या पुलिस के जवान नक्सलियों के लिए एम्बुश नही बना सकते। इतने हथियार आखिर सरकार खरीदती ही क्यो है जब उनका उपयोग न करना हो तो
दिशाहीन हो रहे है माओवादी और नए नए युवक इनकी वर्दी,हथियारों से प्रभावित होकर माओवादी बन रहे है। माओवादियों की लड़ाई जल,जंगल,जमीन बचाने पूंजीवाद एवं शोषण से है मगर इस तरह का नरसंहार करना हिंसात्मक रूप बन गया है। आमजन को भी नक्सली के नाम से कंपकपी छूटने लग गई है। अगर माओवादी अपने पथ पर चलने लगेंगे तो इनसे और अधिक लोग जुड़ने लग जायेंगे।