यदि अधिवक्ताओ की लड़ाई सचमुच में भ्र्ष्टाचार के खिलाफ है तो हिंसात्मक रुख अख्तियार करने की क्यो आवश्यकता पड़ी। राजस्व न्यायलय का बहिष्कार बगैर आक्रमण किये। कलेक्टर को ज्ञापन सौप कर भी किया जा सकता था। भ्र्ष्टाचार की जीती जागती मूर्ति समझे जाने वाले तहसीलदार सुनील अग्रवाल के खिलाफ कलेक्टर,कमिश्नर, चीफ जस्टिस, ACB, मुख्यमंत्री, राजस्व मंत्री आदि को लिखित शिकायत का ज्ञापन सौप कर जन मानस का समर्थन भी जुटाया जा सकता था। तहसील कार्यालय में कार्यपालिक दंडाधिकारी से मारपीट करने पर वकीलों की छवि पर विपरीत प्रभाव तो पड़ा ही है साथ ही अब लोगो के काम धन देने पर भी नही करवाये जा सकेंगे। अधिकारी जिसके पक्ष में चाहेंगे अपनी कलम चला देंगे। ले देकर करवाये जाने वाले कार्यो पर ग्रहण लग चुका है। सुनील अग्रवाल के तबादले के बाद क्या हालात में सुधार हो जायेगा। शायद नही क्योंकि अब जो भी रायगढ़ का तहसीलदार होगा। वह अधिवक्ताओं से दूरी बनाकर ही रहेगा। जिसका कारण प्रदेश स्तर पर आग की तरह फैल चुका। अधिवक्ता, अधिकारी, कर्मचारी विवाद है। टूटी कलम
