🎤 टिल्लू शर्मा ✒️टूटी कलम रायगढ़ छत्तीसगढ़ छट्ठी, दशकर्म, पूजा-पाठ, हवन-कीर्तन, श्रद्धांजलि, खेलकूद प्रतियोगिता.. वोट की खातिर करना पड़ता है। दुश्मन को भी भाई कहना पड़ता है, दोस्ती की दुहाई देना पड़ता है, पहाड़ को राई और राई को पहाड़ करना पड़ता है। बिना बात के हँसना, हर किसी को देख कर मुस्कुराना, जिनसे मिलने से भी कभी कतराते थे उनसे संबंधों की दुहाई देना पड़ता है..चुनाव है साहब..बेनाम से माननीय बनने की चाह में चीथड़ों से गले लगना.. और पत्तल में सूखी रोटी भी खाना पड़ता है।
जैसे बारिश नजदीक आते ही मेंढक टर्राने लगते हैं, ठीक वैसे ही चुनाव नजदीक आते ही कुछ धनाड्य उद्योगपति, ठेकेदार, तथाकथित समाजसेवी जो कि किसी के कटे में कभी पेशाब न करे (एक प्रचलित कहावत या लोकोक्ति) टाइप के महानुभाव अचानक सक्रिय हो जाते हैं। साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर अपने व्यवसाय से अकूत दौलत कमाने के पश्चात राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाले ये छपास रोगी चरण भाट छाप कलमकारों के सामने बोटी फेंककर अपना गुणगान बखान करवा या सोशल मीडिया के माध्यम से आम जनता के सामने ये सिद्ध करने में लग जाते हैं कि ये ही उनके सच्चे हितैषी हैं। इनसे बड़ा परोपकारी, समाजसेवी, सुख-दुख का सच्चा साथी कोई है ही नहीं।
दरअसल अपने व्यापार के विस्तार और अथाह दौलत हासिल करने की लालसा में बाबू से लेकर नेता, मंत्रियों और अफसरान तक नजराना पहुँचा-पहुँचा कर काम हासिल भी कर लेते हैं, और बड़े का तमगा हासिल होते ही इनके आसपास चरण चाटुकारों की फौज इकट्ठी हो जाती है जो फेंके जाने वाली बोटी लपकने की चाह में महिमामंडन कर इनके समक्ष सपनों का मायाजाल बुन-बुन कर इन्हें इनके ही विराट स्वरूप का दर्शन करा देते हैं, और इस माया के वशीभूत होकर ये परोपकार, जन सरोकार जैसे दिखावे कर अपने आपको प्रख्यात समाजसेवी, धर्मपरायण जैसे तमगे दिलवा राजनैतिक दलों से टिकट पाने की लालसा में नेताओं की परिक्रमा करने में जुट जाते हैं।
जिधर दम उधर हम की तर्ज पर चलने वाला ये वर्ग किसी एक का नहीं होता, सत्ता परिवर्तन होते ही ये गिरगिट की भाँति सामने वाले के रंग में रंग जाते हैं। दरअसल इन्हें ये भ्रम होता है कि ये अपनी दौलत के दम पर टिकट हासिल कर नोटों की हरियाली से जनता को रिझाने में कामयाब हो जाएंगे। राजनीतिक दलों को भी वक्ति जरूरत की पूर्ति के लिये ऐसे लोगों की बहुत आवश्यकता होती है। इन्हें भ्रम में उलझाये रख भरपूर दोहन कर काम निकल जाने पर “अगले बार” का हवाला दे पीठ थपथपा इनके अरमानों पर बड़ी बेदर्दी से पानी फेर दिया जाता है।
“दरअसल ऐसे लोगों के लिये न तो कार्यकर्ताओं के और न ही आम जनता के मन में इज्जत होती है। सबको पता होता है कि महज चुनावी साल नहीं बल्कि हर वक्त जन सरोकार से जुड़े मुद्दों को लेकर जो व्यक्ति मुखर होता है, सरकारी योजनाओं, जनता के अधिकारों को लेकर सड़क पर लड़ाई लड़ता है, पार्टी और संगठन की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी निभाता है और आमजन को सहज उपलब्ध होता है वही जनप्रतिनिधि बनने के काबिल होता है।”
आलीशान घरों, एसी गाड़ियों वाले सुविधाभोगी जनता का मर्म क्या समझें, छप्पनभोग खाने वाले भूख और गरीबी क्या जाने, बल्कि इन सब के पीछे असल कारण कुर्सी की ताकत का इस्तेमाल कर अपने व्यापार व्यवसाय का विस्तार और बेहिसाब दौलत कमाना ही रहता है।