🔱 टिल्लू शर्मा ✒️ टूटी कलम एन्यूज रायगढ़ 🌍 छत्तीसगढ़🏹…. रायगढ़ के असीम छाया एनजीओ के डायरेक्टरो रंजीत चौहान और सुदीप मंडल ने चेक बाउंस होने पर किसी तरह की कार्रवाई नहीं होने का लाभ उठाते हुए. सैकड़ो लोगों को अपनी ठगी का शिकार बनाया. गरीबो,ग्रामीणों,दुखियों, बेरोजगारो वृद्धा पेंशन पाने वालो आज तक को नहीं छोड़ा उनसे करोड़ों रुपए ठग लिए गए. सब लोगों ने अपना रुपया वापस मांगना शुरू किया तो उनके द्वारा बैंकों के चेकों को रद्दी कागज समझकर बांट दिया गया.दर्जनों बाउंस चेक थानों में जमा है और लोगों के पास भी बिलासपुर हाईकोर्ट के फैसले ने रंजीत और सुदीप की सजा सुनिश्चित कर दी है. आप बाउंस से इनके गले की फांस बनने से कोई नहीं रोक सकता.
बिलासपुर… छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने चेक बाउंस से जुड़े मामलों में एक बेहद अहम और दूरगामी असर वाला फैसला सुनाया है। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत मुकदमा सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि चेक रिटर्न मेमो में बैंक की मुहर या हस्ताक्षर नहीं है।
यह फैसला न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार व्यास की एकल पीठ ने ACQA संख्या 425/2024 और 194/2024 पर सुनवाई करते हुए दिया, जिसे तुलसी स्टील ट्रेडर्स ने पूर्वा कंस्ट्रक्शन के खिलाफ दायर किया था। मामले में, आरोपी मित्रभान साहू को निचली अदालत ने बरी कर दिया था, यह कहते हुए कि रिटर्न मेमो में बैंक की अधिकृत मुहर नहीं थी, और न ही किसी बैंक अधिकारी से पूछताछ हुई। लेकिन हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के इस नजरिए को “प्रक्रियात्मक त्रुटि” करार दिया और इसे खारिज कर दिया।
क्या है मामला? : तुलसी स्टील ट्रेडर्स के मालिक पुष्पेंद्र केशरवानी ने दावा किया कि उन्होंने सीमेंट और लोहे की छड़ों की आपूर्ति पूर्वा कंस्ट्रक्शन को की थी। बकाया चुकाने के लिए मित्रभान साहू ने दो चेक दिए, एक ₹67,640 और दूसरा ₹1,70,600 का। लेकिन दोनों ही चेक “अपर्याप्त निधि” के चलते बाउंस हो गए। कानूनी नोटिस भेजने के बावजूद भुगतान न मिलने पर पुष्पेंद्र ने एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत मामला दर्ज किया। शिकायतकर्ता ने धारा 145 के तहत हलफनामा और अन्य जरूरी दस्तावेज कोर्ट में पेश किए।
हाईकोर्ट ने क्या कहा? : जस्टिस व्यास ने कहा, “धारा 139 के तहत यह मान्यता है कि चेक किसी देनदारी के विरुद्ध जारी हुआ था। रिटर्न मेमो में सिर्फ बैंक की मुहर न होने से इस कानूनी धारणा को नकारा नहीं जा सकता।” उन्होंने यह भी कहा कि “धारा 146 कोई निश्चित प्रारूप नहीं बताती है, और न ही यह मेमो बैंकर्स बुक एविडेंस एक्ट के तहत आता है। अतः इसकी प्रक्रियात्मक कमियाँ मुकदमे को अमान्य नहीं करतीं।”